Tuesday, 13 November 2012

एक सौ नब्बे रुपये

मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी के आसाँ हो गई।
-मिर्ज़ा  असदुल्लाह ख़ान 'ग़ालिब'

एक पुराने दोस्त से मिलने की तद्बीर एक अरसे से हो रही थी। तो सोचा आज ही मिला जाए।

जेब में, इतना ध्यान था मुझे, कुल मिला के पाँच सौ रुपये के अलावा अलग से छुट्टे पैसे रखे थे। दोनों ने कॉफ़ी पी, तसवीरें खींचीं, कुछ खाया, और तीन सौ तिरानवे रुपये ख़र्च कर वहाँ से चल दिए। रह गए एक सौ नब्बे रुपये।

मेरी दोस्त ने कहा कि उसे घाटकोपर स्टेशन तक छोड़ दूँ। हम दोनों bike पे सवार हुए, चल दिए, और क़रीब पंद्रह मिनटों में घाटकोपर स्टेशन के बेहद क़रीब आ गए। यहीं पहुँचके पता चला कि bike के सामने के पहिए में हवा बाक़ी नहीं। शर्मिंदा-ओ-मजबूर होके मुझे अपनी दोस्त से कहना पड़ा कि आगे का सफ़र उसे अकेले ही तय करना होगा। मेरी लाचारी समझ, मुझसे गले मिलकर वह विदा लेके चली गई।

मैं वापस अपना ध्यान अपनी bike पे लगाता, इतने में मेरे भारी बसते के दाएँ पट्टे ने जवाब दे दिया। "ख़ैर" मैंने बाएँ काँधे पर बसते का भार डाल, आगे बढ़ने का फैसला किया।

राह चलते लोगों से नज़दीकी गराज का पता पूछ पूछ कर मैं जैसे तैसे वहाँ पहुँचा। Bike को स्टैंड पर रखते रखते बसते का दूसरा पट्टा भी टूट गया, और बस्ता धम्म से गिर गया। "ख़ैर" मैंने bike को स्टैंड पे रखा और बस्ता उठाया। दुकानदार बाहर आया, और बिना कुछ पूछे, बिना कुछ कहे वह अपने काम पे लग गया।

कभी कभी यूँ ही हमने अपने दिल को बहलाया है...

"एक सौ नब्बे रुपये..." "एक सौ नब्बे रुपये..."  यही मेरे दिमाग़ में चल रहा था। मैंने खुद से कहा, "सौ या डेढ़ सौ रुपये। उससे ज़्यादा तो क़तई ख़र्च नहीं होगा। उसने पहिए में से ट्यूब निकाला, देखा, और कहा, "बदलना होगा। यह ट्यूब तो गया"

"कितना  होगा?"

"कम से कम दो सौ अस्सी रुपये।"

"क्या! देखो भाई, फिलहाल मेरे पास सिर्फ़ 
एक सौ नब्बे रुपये हैं।

"अर्रे तो ATM से निकाल लाओ"

"भाई, मेरे पास ATM कार्ड नहीं"

"एक मिनट, पूछ के आता हूँ।" यह कहकर वह अपनी छोटी-सी दुकान के अंदर चला गया। अंदर एक अधेढ़ उम्र का आदमी बैठा पान पे किमाम लगा रहा था। दोनों में कुछ बात हुई, और दोनों बाहर आए। दोनों बाप-बेटे लग रहे थे। 

उस अधेढ़ उम्र के आदमी ने मुझसे पूछा, "कहाँ रहते हो?" 

"ठाणे" (उस जगह से क़रीब सोलह किलोमीटर दूर)

"ठीक है। अभी एक सौ नब्बे रुपये दे दो, बाक़ी के कल दे देना।"

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन...

"पर मैं यहाँ रोज़ नहीं आता।"

"कोई बात नहीं, जब आओगे, दे देना। ख़ास पैसे देने के लिए यहाँ आने की ज़रुरत नहीं।"

"अरे लेकिन"

"लेकिन-वेकिन छोड़ दो।"

एक लंबी साँस भर के मैंने कहा "ठीक है। शुक्रिया।"

इतने में वह लड़का काम में जुट गया। अच्छाई की आदत न हो तो शक़ होने लगता है। "शायद इन्हें एक सौ नब्बे रुपये ही दिया जान ठीक होगा। बाक़ी के पैसे तो शायद ऊपरी कमाई ही होगी।" पर शक़ भी कितने देर अच्छाई को छिपाता? "शायद, नहीं।"

मरम्मत होने पार उन्हें एक सौ नब्बे रुपये थमाके मैं bike पे सवार हो गया। 

वह जो एक शख़्स तुझसे पहले यहाँ तख़्त-नशीन था 
उसे भी अपने  ख़ुदा  होने का इतना ही यक़ीन था 
-हबीब जालिब 

उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया, सो मैं bike से उतरके उनके पास गया। "तुम्हें घर भी पहुँचना है, काफ़ी दूर तक जाना है। तुम्हारी जेब में कुछ नहीं है।" जो पैसे मैंने उन्हें दिए थे, उसमें से बीस रुपए निकाल कर उन्होंने मेरे हाथ में रखा। पान पीककर, मुस्कुराए और दूकान के अंदर चले गए।