Monday 22 August 2011

थोड़ा आगे तो सरकिए

कहते हैं कि बंबई में सर्दियां नहीं होती | यहाँ पे सिर्फ़ दो मौसम हैं - एक गर्मी और एक बरसात| मगर कुछ लोग बंबई की सर्दियों को बख़ूबी पहचानते हैं... ख़ास तौर पे जो ट्रेनों में सफ़र करते हैं |

कुछ ऐसा सर्द ही दिन था | धूप मानो सुहानी सर्द हवा को चीरती हुई आ रही थी | और प्लेटफ़ॉर्म पे खड़ा मैं ट्रेन का इंतज़ार करते  कानों में earphones लगाए रेडियो सुन रहा था |  फिर लौड़ स्पीकर पे किसीने कर्कश आवाज़ में ट्रेन की आमद का ऐलान किया और देखते ही देखते प्लेटफ़ॉर्म पे भीड़ जमा हो गयी |

मैं ग़ज़लों का बड़ा शौक़ीन हूँ | रेडियो पर ग़ज़लें चल रहीं थी | "रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ..." | कुछ ही पलों में ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म के उस सिरह पर दीख पड़ा | इस ट्रेन का सफ़र इसी स्टेशन से शुरू होने वाली थी | ज़ाहिर था की भीड़ ज़्यादा नहीं होती | सब ऐसे तय्यार होने लगे मानो दुश्मन ने हमला किया है और अब उसपे फ़तेह हासिल करनी है, चाहे कुछ भी हो | मैं इस फ़िराक़ में था की यह सारा हुजूम ट्रेन के अन्दर चला जाए और मैं घुटन से बचने के लिए दरवाज़े पर ही ठहर जाऊँ |  

जैसे तैसे सारे मुसाफ़िर सवार हो गए | मैं दरवाज़े पे ठहर गया | अब दरवाज़े पर आराम से चार लोग ठहर सकते हैं | शोर और हंगामे से अलग रहने में रेडियो बहुत अच्छा मददगार साबित हुआ |

लोग कभी दोस्तों के सात सफ़र करते हैं या फिर संगी मुसाफिरों के साथ दोस्ती कर लेते हैं | पर मैं, मैं तो किसी अजनबी से दोस्ती तो दूर, बात तक करने की हिम्मत नहीं कर सकता | इसिलए रेडियो पर ग़ज़लों का साथ मुझे अच्छा लगता है |

दरवाज़े पे मेरे पीछे दो लोग थे और मेरे आगे एक लड़का था |  उसकी उम्र  शायद २४  या २५ साल की थी | मुझसे थोडा नाटा था | दरअसल मुझे उसी जगह खड़े रहने की आदत है जहाँ पे वह खड़ा था | इसी उम्मीद में की वह आते किसी नज़दीकी स्टेशन पर उतर जाएगा मैंने एक कान से earphone निकलकर पूछा "भाई कहाँ उतरोगे?"

उसने सर उठाकर मेरी तरफ़ देखा | उसकी आँखें लाल और नम थीं | लब उसके काँप रहे थे | उसने कहा "स्टेशन पर ही उतरूँगा |" इस अजीब जवाब को मैंने हैरानी से, पर चुप चाप क़बूल कर लिया | पता चला वोह बेइंतेहा परेशान है | शायद कोई ज़ियादती बात होगी |

थोड़ी देर में ट्रेन चलने लगी | हौले हौले रफ़्तार पकड़ती ट्रेन हम दरवाज़े पे खड़े मुसाफ़िरों को सर्दियों का एहसास दिला रही थी | हवा चुभ रही थी और धुप सहला रही थी | अचानक उस ने एक सवाल पूछा, "भाईसाहब, एक बात बताइए..." | मैंने एक earphone निकाल, उसकी तरफ ध्यान देने की कोशिश की  | "कोई अगर सुधरना चाहे तो क्या सुधर नहीं सकता ?" "सुधर सकता है न !" मैंने कहा " क्यों नहीं" | यह कहकर मैंने earphone को वापिस अपने कान में लगा लिया | मैं ज़्यादा बोलना नहीं चाहता था | एक तो वह एक अजनबी था,  न जाने मेरे कुछ कहने से उस पर क्या असर पड़े? और तो और रेडियो पे ग़ज़लों पर से ध्यान तो मैं पल भर के लिए भी नहीं हटाना चाहता था |

देखते ही देखते ट्रेन अगली स्टेशन पर पहुँची | कुछ लोग ट्रेन से उतर गए, और उन से ज़्यादा ट्रेन पर सवार हुए | तरस आ रहा था उन पर जो ट्रेन के अन्दर भीड़ का शिकार हो रहे थे | ऐसे में सारा भीड़ हम "द्वार के यात्रिओं" पर कहर ढाते हैं | भीड़ में से कोई इल्तेजा कर जगह माँगता, तो कोई गालियाँ देकर | कोई किसी मुसाफ़िर को कोसता, तो कोई एक ही साँस में बाक़ी सारे मुसाफिरों को | कुछ ही देर में दो लोगों के दरमयान बहस का आग़ाज़ हुआ |

पर अब मेरा ध्यान न तो कम्पार्टमेंट के अन्दर चल रही "लफ़्ज़ी कुश्ती" पर था, और न ही  ग़ज़ल पर | मेरा ध्यान उसके सवाल पर टिका रहा | उसके सवाल में शायद मदद की गुहार थी | दरवाज़े पे अपने आप को संभालते और ठंडी हवा से आखे मींचते हुए मैं यही सोच रहा था की शायद उससे बात करूँ तो उसका मन हलका हो जाए | यह सोच ही रहा था की इस प्रोग्राम की आख़िरी ग़ज़ल चलने लगी  |   

"ज़िन्दगी जब भी तेरे बज़्म में लाती है हमें..." इस ग़ज़ल के आख़िरी लफ़्ज़ और मैंने earphones कानों में से निकाल दिए | बात करने के लिए लब खोलने ही वाला था कि सामने से कुछ ही दूरी पर एक ट्रेन आ रही थी | एक तो चेहरे पे ठंडी हवा के थपेड़ों की वजह से मेरी आवाज़ तो वैसे ही दब जाती, और अब यह ट्रेन अगर बग़ल से गुज़रे, तो उसे ख़ाक कुछ समझ में आता | अब तक वोह ट्रेन यहाँ तक नहीं पहुँचा, तो मैं ठहरा रहा की ट्रेन आए और गुज़रे |

लेकिन इससे पहले कि यह सोच मेरे दिमाग़ में से गुज़रती, मेरे सामने खड़े इस लड़के ने ट्रेन के आगे छलाँग लगा दी |

ट्रेन बग़ल से गुज़री | उसके गुजरने की आवाज़ में मेरे और मेरे साथ सफ़र करने वाले बाक़ी मुसाफ़िरों  की चीख़ें भी दब गईं | और वोह, वोह शायद चीख़ा तक नहीं |

इतने में कम्पार्टमेंट से एक अजनबी आवाज़ आई "भाईसाहब, थोड़ा आगे तो सरकिए |"

3 comments:

  1. Beautifully written. But somewhere it was predictable. Par aapki hindi aur urdu ka swad paa kar hum phir ek baar atyant khush ho gaye :-)

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  2. Agreed with Niralee. Thoda predictable tha. But still held my attention till the end, so doesn't matter. Boss, your hindi is good, or the background is difficult to read on, coz i took hell lot of time trying to read this!!! :P

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